उपन्यास के तत्वों के आधार पर गबन की समीक्षा कीजिए।

ग़बन प्रेमचन्द के एक विशेष चिन्ताकुल विषय से सम्बन्धित उपन्यास है। यह विषय है, गहनों के प्रति पत्नी के लगाव का पति के जीवन पर प्रभाव। गबन में टूटते मूल्यों के अंधेरे में भटकते मध्यवर्ग का वास्तविक चित्रण किया गया। इन्होंने समझौतापरस्त और महत्वाकांक्षा से पूर्ण मनोवृत्ति तथा पुलिस के चरित्र को बेबाकी से प्रस्तुत करते हुए कहानी को जीवंत बना दिया गया है।


उपन्यास किसे कहते हैं? 
उपन्यास शब्द 'उप' उपसर्ग और 'न्यास' पद के योग से बना है। जिसका अर्थ है उप= समीप, न्याय रखना स्थापित रखना (निकट रखी हुई वस्तु)। अर्थात् वह वस्तु या कृति जिसको पढ़कर पाठक को ऐसा लगे कि यह उसी की है, उसी के जीवन की कथा, उसी की भाषा मे कही गई हैं। उपन्यास मानव जीवन की काल्पनिक कथा है। प्रेमचंद के अनुसार "मैं उपन्यास को मानव जीवन का चित्रमात्र समझता हूँ । मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है। 

उपन्यास के तत्वों के आधार पर गबन की समीक्षा

  उपन्यास के ये तत्व माने जाते हैं -
1. कथावस्तु 
2. पात्र तथा चरित्र-चित्रण
3. कथोपकथन 
4. भाषा तथा शैली
5. देश-काल 
6. उद्देश्य

इन तत्वों के आधार पर अब हम 'गबन' की समीक्षा करेंगे।

1. कथावस्तु : - 
         'गबन' की मुख्य कथावस्तु जालपा और रमानाथ के जीवन को घेर कर चलती है। जालपा की आभूषण-प्रियता और रमेश के मिथ्याभिमान तथा आत्म प्रशंसा से कथा का आरंभ होता है। पुलिस के माया-महल में उसका विकास होता है। जालपा की त्याग-भावना देखकर रमानाथ आँखें खोलता है। यहाँ कहानी का अन्त होता है ।
         रतनबाई और इन्दुभूषण की कथा, देवीदीन और जग्गो की कथा तथा जोहरा की कथा गबन की अप्रासंगिक कथायें है। ये कथावस्तु के प्रवाह में बाधक न होकर उसके विकास में सहायक बन पडी हैं।

2. पात्र और चरित्र-चित्रण : 
        'गबन' के पुरुष पात्रों में रामनाथ, देवीदीन, रमेश बाबू दीनदयाल, इन्दुभूषण, मणिभूषण आदि हैं। स्त्री पात्रों में जालपा, रतन, जग्गो, जोहरा, रामेश्वरी, जानेश्वरी आदि हैं। इस प्रकार 'गबन' में प्रेमचन्द जी के अन्य उपन्यासों की अपेक्षा पात्रों की संख्या कम है। इसलिए पात्रों का व्यक्तित्व पूर्ण रूप से उभरकर आया है। पात्रों का उत्थान-पतन एक क्रम से श्रृंखला बद्ध है। पात्रों के अन्तर्द्वन्द्व का चित्रण सजीव बन पड़ा है।
         'गबन के पात्र वर्ग के प्रतिनिधि होते हुए भी व्यक्तिमत विशेषताओं से युक्त हैं। रमानाथ मध्य वर्ग का प्रतिनिधि है। दिखावा, मिथ्याभिमान, घूसखोरी आदि उसकी व्यक्तिगत  विशेषताएँ हैं। देवीदीन निम्न वर्ग का प्रतिनिधि है। उसकी विशेषताएँ हैं आलस्य, परोपकार, देश-प्रेम आदि।
         प्रेमचन्द जी ने अन्य उपन्यासों की भाँति 'गबन' में भी पुरुष पात्रों की अपेक्षा स्त्री-पात्रों के चरित्र- चित्रण में अद्भुत कौशल दिखाया है। उन्होंने नारी-पात्रों को पुरुष-पात्रों की प्रेरक -शक्ति ठहरायी है। जालपा, रतन और जग्गो स्वयं कष्ट झेलकर क्रमशः रमा, इन्दुभूषण और देवीदीन के जीवन को आलोकमय बनाती है।

3. कथोपकथन -
       'गबन' में कथोपकथन प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त है। वे अतीव सुन्दर, संक्षिप्त तथा कथा को आगे बढाने वाले है। उनमें कहीं कहीं नाटकीयता भी देखने को मिलती है। 'गबन' उपन्यास का आरम्भ ही नाटकीयता लिए हुए है। देखिए -

  • लडकी माँ से बोली -  'अम्मा यह हार लूँगी।' 
  • माँ ने विसाती से पूछा बाबा, यह हार कितने का है ?
  • विसाती ने हार को रूमाल से पोंछते हुए कहा - खरीद तो बीस आने की है,मालिक जो चाहे दे दें।'
  • पात्रों की मनः स्थिति पर प्रकाश डालनेवाला यह संवाद देखिये
  • माता : मैं लेकर क्या करूँगी बेटी, मेरे पहनने-ओढ़ने के दिन  निकल गये। कौन लाया है? बेटा, क्या दाम हैं इनके ?
  • रमा : एक सराफ दिखाने आया है, बभी दाम आम नहीं पूछे मगर ऊँचे दाम होंगे । लेना तो या नहीं, दाम पूछकर क्या करता। 
  • जालपा : लेना ही नहीं था तो यहाँ लाये क्यों? 
  • यह सँवाद माता, रमा तथा जालपा, इन तीनों के चरित्र पर प्रकाश डालता है।
गबन में कथोपकथन पात्रानुकुल हैं। देखिए :
  • कहार : तो का चार हाथ मोड कर लई, कामे से तो गया रहिन बाबू मेम साहब
  • के तीन रुपैया लेने का भेजिव रहा।
  • जालपा : कोन मेम साहब ?
'गबन' के कथोपकथनों में केवल तीन लम्बे हो गये हैं 
1. इन्दुभूषण का यूरोपीय संस्कार वर्णन 
2. देवीदीन का स्वराज्य सम्बन्धी लम्बा भाषण और 
3. हाईकोर्ट में वकील का बयान ।

4. भाषा तथा शैली :
         प्रेमचन्द जी की भाषा साहित्यिक व परिमार्जित है । उर्दू शब्दों के प्रयोग से भाषा में स्वाभाविकता आ गयी है। सुगठित वाक्य-रचना के कारण भाषा की रमणीयता बढ़ गयी है। भाषा गंगा-प्रवाह की तरह सुन्दर बन पड़ी है। एक उदाहरण देखिये - "रमा के परिचितों में एक रमेशबाबू म्युनिसिपल बोर्ड में हेड़कलर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी। पर वे बड़े रसिक। शतरंज खेलने बैठ जाते तो सबरा कर देते, दफतर भी भूल जाते।"
         प्रेमचन्द जी की भाषा प्रांजल है। शैली सुन्दर, सरस और मनोज्ञ है। यही नहीं, जालपा और रमानाथ जैसे मध्यवर्ग के लोगों की भाषा न संस्कृत शब्दों से बोझिल हुई और न उर्दू शब्दों से। मुहावरों और कहावतों के प्रयोग से भाषा सरस, स्वाभाविक और सुरुचिपूर्ण बन पडी है। कुछ उदाहरण देखिये

1. तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो, बुरा मालूम होता । है तो लाओ  एक हजार निकालकर दे दो।
2 .वस्त्राभूषण कोई मिठाई तो नहीं, जिसका स्वाद एकान्त में लिया जा सके।
3. वाह, तुम अपना कंगन दे दो तो क्या कहना है। मूसलों ढोल बजाऊँ।

प्रेमचन्द जी ने यत्र-तत्र सुन्दर वाक्यों का प्रयोग किया
1. कर्ज से बड़ा पाप दूसरा नहीं।
2. अपनी चादर देखकर ही पाँव फैलाना चाहिए।
3. निर्धन होकर जीना मरने से भी बदतर है।
4. रिश्वत बुद्धि से, कौशल से पुरुषार्थ से मिलती है । 
         प्रेमचंद जी के शब्द-चित्र भी बहुत सजीव बन पड़े हैं। देखिये "रुदन में कितना उल्लास, कितनी शान्ति, कितना बल है। उस मीठी वेदना का आनन्द उन्हीं से पूछो, जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है।" .

5. देश-काल का वर्णन :- 
         'गबन में अंग्रेजों के शासन काल में भारतवासियों के धार्मिक व सामाजिक जीवन का अच्छा चित्रण किया गया है। भारतीय सभ्यता और समाज पर पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण भारत में मध्य वर्ग का जन्म हुआ। यह वर्ग अंग्रेजी पढे हुए बाबू लोगों का था । यह वर्ग बुद्धिजीवी वर्ग था। आर्थिक अभावों के कारण इस वर्ग पर दिखावे का रंग चढ़ गया था। 'गबन का रमानाथ मध्यवर्ग का प्रतिनिधि है। उसमें सम्मान की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी।

           जिस समय गबन की रचना की गयी थी, उस समय स्वदेशी आंदोलन जोरों पर था। प्रेमचंद जी ने इसका 'गबन में सुन्दर चित्रण किया है। देखिये - "जिस देश में रहते हैं, जिसका अन्नजल खाते है उसके लिए इतना भी न करें, तो जीने को धिक्कार है। दो जवान बेटे इसी सुदेशी की भेंट कर चुका हूँ। ऐसे ऐसे पट्टे थे कि तुमसे क्या कहूँ । दोनों विदेशी कपड़े की दुकान पर तैनात थे। क्या मजाल थी कि कोई ग्राहक दुकान पर आ जाय। .....धन्य है वे वीर-युवक जिन्होंने जननी-जन्म भूमि भारत के लिए हैंसते-हँसते अपने बहुमूल्य प्राणों को उत्सर्ग कर दिया है और फिर वह देश धन्य है जिसने ऐसे पुत्र-रत्नों को जन्म दिया है।"

तत्कालीन स्थिति का वर्णन उपन्यास के कई स्थानों में मिलता है। देखिये -
1. अंगरेजी शासन काल में भारत के अधिकाश अफसर रिश्वत को हराम समझते हैं।
2. उस समय सिनेमा घर अवश्य थे, लेकिन लोगों की अभिरुचि नाटकों पर भी थी। पौराणिक नाटको की लोग अधिक पर बंद करते थे।
3. वेश्याएँ बेखटके अपना व्यापार चलाती थी। वे अपनी लंबी जाल फैलाकर पुरुषों को अपने वश में कर लेती थी पुलिस भी उनसे बचकर सुरक्षित नहीं रहती। इस कुप्रथा की रोक-थाम उस समय बिलकुल नहीं हुई थी।
           भारत-नारी के हृदय में आभूषणो के प्रति जितना प्रेम है, उतना प्रेम अन्य देश की नारियों में नहीं दिखाई देता । नारियों के आभूषण-प्रेम से उत्पन्न होनेवाली समस्याओं का चित्रण करना ही 'गबन' उपन्यास का प्रमुख उद्धेश्य है। प्रेमचंद ने आभूषण-प्रेम के बारे में यों लिखा है - "जालपा को गहनो से जितना प्रेम था, उतना कदाचित् संसार की और किसी वस्तु से न था और उसमें आश्चर्य की कौन सी बात थी ? इस आभूषण मंडित संसार में पली हुई जालपा का यह आभूषण प्रेम स्वाभाविक ही था।"

 6. उद्देश्य :- 
 'गबन' का मुख्य उद्देश्य भारतीय महिला के आभूषण-प्रेम से उत्पन्न होनेवाल भीषण परिणामों को दिखाना रहा है। साथ ही इसमें रिश्वत खोरी, वेश्या-समस्या आदि पर भी लेखक ने पाठकों की दृष्टि आकर्षित की है।

         इस प्रकार उपन्यास के तत्वों के आधार पर समीक्षा करने से हम देखते हैं कि 'गबन' उपन्यास कला का एक सुन्दर नमूना है।

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