प्राग इतिहास पर एक निबंध लिखें | बिहार की विभिन्न जनजातियों की समस्याओं का उल्लेख करें |

प्राग इतिहास पर एक निबंध - बिहार की विभिन्न जनजातियों की समस्याओं


प्रागितिहास (Prehistory) इतिहास के उस काल को कहा जाता है जब मानव तो अस्तित्व में थे लेकिन जब लिखाई का आविष्कार न होने से उस काल का कोई लिखित वर्णन नहीं है।[ मानव प्रागितिहास, पत्थर के उपकरण का उपयोग 3.3 मिलियन साल पहले होमिनिन्स और लेखन प्रणालियों के आविष्कार के बीच की अवधि है। सबसे पहले लेखन प्रणाली 5,300 साल पहले दिखाई दी थी, लेकिन लेखन को व्यापक रूप से अपनाया जाने में हजारों साल लग गए, और 19 वीं शताब्दी तक या वर्तमान तक भी कुछ मानव संस्कृतियों में इसका उपयोग नहीं किया गया था।

 मेसोपोटामिया में सुमेर, सिंधु घाटी सभ्यता और प्राचीन मिस्र अपनी खुद की लिपियों को विकसित करने और ऐतिहासिक रिकॉर्ड रखने वाली पहली सभ्यताएं थीं; यह शुरुआती कांस्य युग के दौरान पहले से ही था। इस काल में मानव-इतिहास की कई महत्वपूर्ण घटनाएँ हुई जिनमें हिमयुग, मानवों का अफ़्रीका से निकलकर अन्य स्थानों में विस्तार, आग पर स्वामित्व पाना, कृषि का आविष्कार, कुत्तों व अन्य जानवरों का पालतू बनना इत्यादि शामिल हैं। ऐसी चीज़ों के केवल चिह्न ही मिलते हैं, जैसे कि पत्थरों के प्राचीन औज़ार, पुराने मानव पड़ावों का अवशेष और गुफाओं की कला। पहिये का आविष्कार भी इस काल में हो चुका था जो प्रथम वैज्ञानिक आविष्कार था। प्रागैतिहासिक काल में मानवों का वातावरण बहुत भिन्न था। अक्सर मानव छोटे क़बीलों में रहते थे और उन्हें जंगली जानवरों से जूझते हुए शिकारी-फ़रमर जीवन व्यतीत करना पड़ता था। विश्व की अधिकतर जगहें अपनी प्राकृतिक स्थिति में थीं।

 ऐसे कई जानवर थे जो आधुनिक दुनिया में नहीं मिलते, जैसे कि मैमथ और बालदार गैंडा। विश्व के कुछ हिस्सों में आधुनिक मानवों से अलग भी कुछ मानव जातियाँ थीं जो अब विलुप्त हो चुकी हैं, जैसे कि यूरोप और मध्य एशिया में रहने वाले निअंडरथल मानव। अनुवांशिकी अनुसन्धान से पता चला है कि भारतीयों-समेत सभी ग़ैर-अफ़्रीकी मानव कुछ हद तक इन्ही निअंडरथलों की संतान हैं, यानि आधुनिक मानवों और निअंडरथलों ने आपस में बच्चे पैदा किये थे।


इतिहासकार प्रागैतिहास को कई श्रेणियों में बांटते हैं। एक ऐसी विभाजन प्रणाली में तीन युग बताए जाते हैं:

पाषाण युग - जब औज़ार व हथियार केवल पत्थर के ही बनते थे।
कांस्य युग - जब औज़ार व हथियार कांसे (ब्रॉन्ज़​) के बनाने लगे।
लौह युग - जब औज़ारो व हथियारों में लोहे का इस्तेमाल शुरू हो गया

प्रागैतिहासिक काल का समय : प्रागैतिहासिक काल का समय 5,00,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू. तक माना जाता है।
प्रागैतिहासिक काल या प्रागैतिहासिक कालखंड को तीन भागों में विभाजित किया गया है —
  1. पुरापाषाण काल (Palaeolithic Age) – 5,00,000 ई.पू. से 50,000 ई.पू. तक
    आखेटक एवं खाद्य संग्राहक
  2. मध्यपाषाण काल (Mesolithic Age) – 10,000 ई.पू. से 7000 ई.पू. तक
    आखेटक एवं पशु पालक
  3. नवपाषाण काल (Neolithic Age) – 9,000 ई.पू. (विश्व) व 7,000 ई.पू. (भारत) से 2,500 ई.पू. तक
    खाद्य उत्पादक, स्थिर एवं समुदाय में रहना

1. पुरापाषाण काल

पुरापाषाण काल को तीन उपभागों में बाँटा जा सकता है —

निम्न पुरापाषाण काल :
– निम्न पुरापाषाण काल 5,00,000 ई.पू. से 50,000 ई.पू. तक माना जाता है।
– इस समय तक मानव आग का अविष्कार कर चूका था।
– मानव समूह बनाकर शिकार कर भोजन का संग्रह करता था।
प्रमुख स्थल : कश्मीर, राजस्थान का थार, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में स्थित बेलन घाटी, भीमबेटका की गुफाएँ, नर्मदा घाटी (मध्य प्रदेश), सोहन नदी घाटी, कर्णाटक एवं आंध्रप्रदेश आदि।
मुख्य औजार : क्वार्ट्जाइट पत्थर के बने कुल्हाड़ी, हस्त कुल्हाड़ी या हस्त कुठार (hand-axe), खण्डक (गँड़ासा) (Chopper)।

मध्य पुरापाषाण काल :
– मध्य पुरापाषाण काल 50,000 ई.पू. से 40,000 ई.पू. तक माना जाता है।
– इस काल को फलक संस्कृति (Flake Culture) भी कहते हैं।
– आग का प्रयोग व्यापक रूप में किया जाने लगा था।
– इस काल में पत्थर के गोले से वस्तुओं का निर्माण होने लगा था।
प्रमुख स्थल : मध्य प्रदेश की नर्मदा घाटी, राजस्थान का डीडवाना, महाराष्ट्र का नेवासा, उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर और पश्चिम बंगाल का बाकुण्डा एवं पुरलिया।
मुख्य औजार : पत्थर की पपड़ियों के बने फलक, छेदनी और खुरचनी आदि इस काल के प्रमुख हथियार थे।हथियारों में क्वार्ट्जाइट के आलावा जैस्पर एवं चर्ट आदि पत्थरों का प्रयोग होने लगा था।

उच्च पुरापाषाण काल :
– उच्च पुरापाषाण काल 40,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू. तक माना जाता है।
– इस काल में होमो सेपियन्स (Homo Sapiens) अर्थात आधुनिक मानव का उदय हुआ।
– इस काल का मानव शैलाश्रयों (Rock shelter) में रहने लगा था।
– मानव चित्रकारी और नक्काशी करना जान चूका था।
– इस काल के चित्रकारी के साक्ष्य मध्य प्रदेश स्थित ‘भीमबेटका की गुफाओं’ से प्राप्त हुये हैं।
प्रमुख स्थल : उत्तर प्रदेश स्थित बेलन घाटी, महाराष्ट्र स्थित बीजापुर एवं इनामगांव, केरल स्थित चित्तूर, झारखण्ड स्थिर छोटानागपुर का पठार आदि।
प्रमुख औजार : हड्डियों से बने औजार, फलक, तक्षणी एवं शल्क आदि।

2. मध्य पाषाण काल

  • - मध्य पाषाण काल 10,000 ई.पू. से 7000 ई.पू. तक माना जाता है।
  • - इस काल के मानव मछली पकड़कर, शिकार करके और खाद्य सामग्री एकत्रित कर जीवन यापन करते थे।
  • - मानव द्वारा पशुपालन करने का प्रारम्भिक साक्ष्य इसी काल के मानवों का प्राप्त हुआ है।
  • - मानव द्वारा पशुपालन के साक्ष्य राजस्थान के बागोर और मध्य प्रदेश के आदमगढ़ से प्राप्त हुए हैं।
  • - इस काल के मानव एक ही स्थान पर स्थायी निवास करते थे इसका प्रारंभिक साक्ष्य सराय नाहर राय (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) एवं महदहा से स्तम्भगर्त के रूप में मिलता है।
  • - इस काल के मानवों द्वारा एक दूसरे पर आक्रमण और युद्ध करने के प्रारंभिक साक्ष्य भी सराय नाहर राय से प्राप्त हुए हैं।
  • - इतिहासकारों का मत है कि ‘मातृदेवी की उपासना’ और ‘शवाधान की पद्धति’ संभवतः इसी काल में प्रारम्भ हुई होगी।
प्रमुख स्थल : बिहार का ‘पायसरा – मुंगेर’, राजस्थान का बागोर, गुजरात का लंघनाज, उत्तर प्रदेश स्थित सराय नाहर राय (प्रतापगढ़) और महागढ, मध्य प्रदेश स्थित आदमगढ़ (होशंगाबाद), भीमबेटका (भोपाल) और बोधोर आदि।
प्रमुख औजार :
  • सर्वप्रथम तीर कमान का अविष्कार इसी काल में हुआ था।
  • इस काल के हथियार भी पत्थर और हड्डियों के ही बने होते थे लेकिन ये पुरापाषाणकाल की तुलना में बहुत छोटे होते थे, इसलिए इन्हें माइक्रोलिथ अर्थात लघुपाषण कहा जाता है।
  • हथियारों में लकड़ियों और हड्डियों के हत्थे लगे हंसिए एवं आरी आदि हथियार मिलते हैं।
  • नुकीले क्रोड, त्रिकोण, ब्लेड और नवचन्द्राकर आदि आकार के प्रमुख हथियार थे।

3. नवपाषाण काल

  • नवपाषाण काल विश्व के लिए 9,000 ई.पू. से और भारत के लिए 7,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू. तक माना जाता है।
  • कृषि कार्य का प्रारम्भ, पशु पालन, पत्थरों को घिसकर औजार और हथियार बनाना आदि इस काल की विशेषता थी।
  • पत्थर की कुल्हाड़ियों का प्रयोग किया जाता था।
  • इस काल में मिट्टी के बने बर्तनों (मृदभांडों) का प्रयोग और उनमे विविधता मिलती है।
  • ग्राम समुदाय का प्रारम्भ और स्थिर ग्राम्य जीवन का विकास भी संभवतः इसी काल में हुआ था, अर्थात मानव घर बना कर एक ही स्थान पर रहता था।
  • इस काल के मानव गोलाकार और आयतकार घरों में रहा करते थे जिसे मिट्टी और सरकंडों से बनाया जाता था।
  • बलूचिस्तान के मेहरगढ़ से इस काल की कृषि का प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुआ है। मेहरगढ़ से जौ, गेहूँ, खजूर और कपास की फसलों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। यहाँ के लोग मिट्टी के कच्ची ईटों से बने आयताकार घरों में रहा करते थे।
  • मानव द्वारा सर्वप्रथम प्रयुक्त अनाज जौ था।
  • उत्तर प्रदेश के कोलडिहवा (इलाहबाद) से 6,000 ई.पू. के चावल उत्पादन के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
  • कश्मीर के बुर्जहोम से गर्तावास (गड्ढा रूपी घर), हड्डी के औजार आदि मिले हैं। साथ ही कब्रों में मालिक के शवों के साथ उनके पालतू कुत्तों को भी दफनाया गया है।
  • सर्वप्रथम इसी काल में कुत्तों को पालतू बनाया गया।
  • बिहार के चिरांद (सारण) से हड्डी के बने औजार और मुख्य रूप से हिरन के सींगों से बने उपकरण मिले हैं।
  • कुंभकारी सर्वप्रथम इसी काल में मिलती है, बर्तनों में पॉलिशदार काला मृदभांड, धूसर मृदभांड और चटाई की छाप वाले मृदभांड प्रमुख हैं।
  • कर्णाटक के पिक्लीहल से राख के ढेर तथा निवास स्थान मिले हैं। यहाँ के निवासी पशु पाला करते थे।
  • प्रमुख स्थल : सरुतरु और मारकडोला (असम), उतनूर (आन्ध्र प्रदेश), चिरांद, सेनुआर (बिहार), बुर्जहोम, गुफ्कराल (कश्मीर), कोलडिहवा, महागढ (उत्तर  प्रदेश), पैयमपल्ली (तमिलनाडु), ब्रह्मगिरि, कोडक्कल, पिक्लीहल, हल्लुर, मस्की, संगेनकल्लु (कर्नाटक), मेहरगढ़ (पाकिस्तान)

बिहार में जनजातियों की स्थिति

कुछ समय पहले अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह की सेंटिनलीज जनजाति व्यापक चर्चा का विषय बनी हुई थी। माजरा कुछ यूँ था कि इस जनजाति के कुछ सदस्यों ने एक अमेरिकी पर्यटक की हत्या कर दी थी। गौरतलब है कि बाहरी दुनिया तथा बाहरी हस्तक्षेप के प्रति इनका रवैया अमूमन शत्रुतापूर्ण ही रहा है।
इस प्रकार का वाकया पहली बार देखने को नहीं मिला है। जब-जब बाहरी लोगों ने इन जनजातियों के साथ संपर्क साधने की कोशिश की तब-तब इन्होंने हिंसक तेवर अपनाए। इनके इसे रवैये के कारण देश की आज़ादी से पहले ब्रिटिश शासन ने इन्हें Criminal Tribes Act,1871 के तहत क्रिमिनल जनजाति तक का दर्जा दे दिया था और इनके बच्चों को 6 वर्ष की आयु के पश्चात् इनके माता-पिता से दूर कर दिया जाता था।
हालाँकि आज़ादी के बाद बिहार सरकार ने इनके क्रिमिनल जनजातियों के दर्जे को बदलकर गैर-अधिसूचित जनजातियाँ (De-notified Tribes) कर दिया। ये जनजातियाँ मसलन डी-नोटिफाईड और नोमेडिक/सेमि-नोमेडिक, सरल शब्दों में कहें तो घुमंतू जनजातियाँ आज भी कई समस्याओं का सामना कर रही हैं। समाज के अन्य सदस्यों के बीच इनकी दयनीय स्थिति किसी से छुपी नहीं है।
  • ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या कारण है कि ये जनजातियाँ बाहरी लोगों से अपना संपर्क नहीं साध पाती हैं? क्यों ये आधुनिक दुनिया से अलगाव महसूस करती हैं? सवाल यह भी है कि ये जनजातियाँ किन-किन समस्याओं का सामना कर रही हैं? इस लेख में इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की गई है। यहीं पर एक और सवाल मन में कौंधता है कि जनजाति किसे कहते हैं? इसकी परिभाषा क्या है? इस लेख के माध्यम से हम इन्हीं कुछ प्रश्नों का जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।

बिहार में जनजातियाँ

जनजातियाँ वह मानव समुदाय हैं जो एक अलग निश्चित भू-भाग में निवास करती हैं और जिनकी एक अलग संस्कृति, अलग रीति-रिवाज, अलग भाषा होती है तथा ये केवल अपने ही समुदाय में विवाह करती हैं। सरल अर्थों में कहें तो जनजातियों का अपना एक वंशज, पूर्वज तथा सामान्य से देवी-देवता होते हैं। ये अमूमन प्रकृति पूजक होते हैं।
  • भारतीय संविधान में जहाँ इन्हें 'अनुसूचित जनजाति' कहा गया है तो दूसरी ओर, इन्हें अन्य कई नामों से भी जाना जाता है मसलन- आदिवासी, आदिम-जाति, वनवासी, प्रागैतिहासिक, असभ्य जाति, असाक्षर, निरक्षर तथा कबीलाई समूह इत्यादि। हालाँकि भारतीय जनजातियों का मूल स्रोत कभी देश के संपूर्ण भू-भाग पर फैली प्रोटो ऑस्ट्रेलॉयड तथा मंगोल जैसी प्रजातियों को माना जाता है। इनका एक अन्य स्रोत नेग्रिटो प्रजाति भी है जिसके वंशज अण्डमान- निकोबार द्वीपसमूह में अभी भी मौजूद हैं।
गौरतलब है कि अनेकता में एकता ही भारतीय संस्कृति की पहचान है और इसी के मूल में निश्चित रूप से बिहार के विभिन्न प्रदेशों में स्थित जनजातियाँ हैं जो विभिन्न क्षेत्रों में रहते हुए अपनी संस्कृति के ज़रिये भारतीय संस्कृति को एक अनोखी पहचान देती हैं।
वर्तमान में भी बिहार में उत्तर से लेकर दक्षिण तथा पूर्व से लेकर पश्चिम तक जनजातियों के साथ-साथ संस्कृति का विविधीकरण देखने को मिलता है। बिहार भर में जनजातियों की स्थिति का जायजा उनके भौगोलिक वितरण को समझकर आसानी से लिया जा सकता है।

जनजातियों का भौगोलिक वितरण

भौगोलिक आधार पर बिहार की जनजातियों को विभिन्न भागों में विभाजित किया गया है जैसे-उत्तर तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र, मध्य क्षेत्र, दक्षिण क्षेत्र और द्वीपीय क्षेत्र।
उत्तर तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र के अंतर्गत हिमालय के तराई क्षेत्र, उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र सम्मिलित किये जाते हैं। कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड तथा पूर्वोत्तर के सभी राज्य इस क्षेत्र में आते हैं। इन क्षेत्रों में बकरवाल, गुर्जर, थारू, बुक्सा, राजी, जौनसारी, शौका, भोटिया, गद्दी, किन्नौरी, गारो, ख़ासी, जयंतिया इत्यादि जनजातियाँ निवास करती हैं।
गर बात करें मध्य क्षेत्र की तो इसमें प्रायद्वीपीय बिहार के पठारी तथा पहाड़ी क्षेत्र शामिल हैं। मध्य प्रदेश, दक्षिण राजस्थान, आंध्र प्रदेश, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिशा आदि राज्य इस क्षेत्र में आते हैं जहाँ भील, गोंड, रेड्डी, संथाल, हो, मुंडा, कोरवा, उरांव, कोल, बंजारा, मीणा, कोली आदि जनजातियाँ रहती हैं।
  • दक्षिणी क्षेत्र के अंतर्गत कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल राज्य आते हैं जहाँ टोडा, कोरमा, गोंड, भील, कडार, इरुला आदि जनजातियाँ बसी हुई हैं।
  • द्वीपीय क्षेत्र में अमूमन अंडमान एवं निकोबार की जनजातियाँ आती हैं। मसलन- सेंटिनलीज, ओंग, जारवा, शोम्पेन इत्यादि। हालिया चर्चा का विषय रहने के कारण यह ज़रूरी हो जाता है कि हम एक सरसरी नज़र सेंटिनलीज जनजाति पर डाल लें।

सेंटिनलीज जनजाति

यह जनजाति एक प्रतिबंधित उत्तरी सेंटिनल द्वीप पर रहने वाली एक नेग्रिटो जनजाति है। 2011 के जनगणना आँकड़ों के अनुसार द्वीप पर इनकी संख्या 15 के आस-पास थी।
जहाँ एक तरफ अंडमान द्वीप में चार नेग्रिटो जनजातियों- ग्रेट अंडमानी, ओंगे/ओंज, जारवा तथा सेंटिनलीज का निवास है तो वहीं दूसरी तरफ निकोबार में दो मंगोलॉइड जनजातियाँ मसलन- निकोबारी और शोम्पेन का निवास है।
सेंटिनलीज के साथ ही अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह की अन्य जनजातियाँ- ग्रेट अंडमानी, ओंगे, जारवा तथा शोम्पेन बिहार की विशेष रूप से अति संवेदनशील जनजातीय समूहों यानी Particularly Vulnerable Tribal Groups (PVTGs) में शामिल हैं।
बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियों की समस्याएँ
जनजातियाँ ऐसे इलाकों में निवास करती हैं जहाँ तक बुनियादी सुविधाओं की पहुँच न के बराबर है। लिहाज़ा ये बहुत सारी समस्याओं को झेल रही हैं।
अगर बात करें सामाजिक समस्याओं की तो ये आज भी सामाजिक संपर्क स्थापित करने में अपने-आप को सहज नहीं पाती हैं। इस कारण ये सामाजिक-सांस्कृतिक अलगाव, भूमि अलगाव, अस्पृश्यता की भावना महसूस करती हैं। इसी के साथ इनमें शिक्षा, मनोरंजन, स्वास्थ्य तथा पोषण संबंधी सुविधाओं से वंचन की स्थिति भी मिलती है।


आज भी जनजातीय समुदायों का एक बहुत बड़ा वर्ग निरक्षर है जिससे ये आम बोलचाल की भाषा को समझ नहीं पाती हैं। सरकार की कौन-कौन सी योजनाएँ इन तबकों के लिये हैं इसकी जानकारी तक इनको नहीं हो पाती है जो इनके सामाजिक रूप से पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है।
इनके आर्थिक रूप से पिछड़ेपन की बात की जाए तो इसमें प्रमुख समस्या गरीबी तथा ऋणग्रस्तता है। आज भी जनजातियों के समुदाय का एक तबका ऐसा है जो दूसरों के घरों में काम कर अपना जीवनयापन कर रहा है। माँ-बाप आर्थिक तंगी के कारण अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं पाते हैं तथा पैसे के लिये उन्हें बड़े-बड़े व्यवसायियों या दलालों को बेच देते हैं। लिहाज़ा बच्चे या तो समाज के घृणित से घृणित कार्य को अपनाने हेतु विवश हो जाते हैं अन्यथा उन्हें मानव तस्करी का सामना करना पड़ता है। रही बात लड़कियों की तो उन्हें अमूमन वेश्यावृत्ति जैसे घिनौने दलदल में धकेल दिया जाता है। दरअसल जनजातियों के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण उनका आर्थिक रूप से पिछड़ापन ही है जो उन्हें उनकी बाकी सुविधाओं से वंचित करता है।
धार्मिक अलगाव भी जनजातियों की समस्याओं का एक बहुत बड़ा पहलू है। इन जनजातियों के अपने अलग देवी-देवता होते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है समाज में अन्य वर्गों द्वारा इनके प्रति छुआछूत का व्यवहार। अगर हम थोड़ा पीछे जायें तो पाते हैं कि इन जनजातियों को अछूत तथा अनार्य मानकर समाज से बेदखल कर दिया जाता था; सार्वजनिक मंदिरों में प्रवेश तथा पवित्र स्थानों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया जाता था। आज भी इनकी स्थिति ले-देकर यही है।
यही सब पहलू हैं जिसके कारण जनजातियाँ आज भी बाहरी दुनिया से अपना संपर्क स्थापित नहीं कर पा रही हैं। इन्हीं सब समस्याओं का हल ढूंढने के लिये सरकार द्वारा अपनाए गए कुछ विकासात्मक पहलुओं पर चर्चा करना मुनासिब होगा।

जनजातियों के उत्थान के लिये सरकार द्वारा उठाए गए कदम

संविधान के पन्नों को देखें तो जहाँ एक तरफ अनुसूची 5 में अनुसूचित क्षेत्र तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण का प्रावधान है तो वहीं दूसरी तरफ, अनुसूची 6 में असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन का उपबंध है। इसके अलावा अनुच्छेद 17 समाज में किसी भी तरह की अस्पृश्यता का निषेध करता है तो नीति निदेशक तत्त्वों के अंतर्गत अनुच्छेद 46 के तहत राज्य को यह आदेश दिया गया है कि वह अनुसूचित जाति/जनजाति तथा अन्य दुर्बल वर्गों की शिक्षा और उनके अर्थ संबंधी हितों की रक्षा करे।
अनुसूचित जनजातियों के हितों की अधिक प्रभावी तरीके से रक्षा हो, इसके लिये 2003 में 89वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के द्वारा पृथक राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना भी की गई। संविधान में जनजातियों के राजनीतिक हितों की भी रक्षा की गई है। उनकी संख्या के अनुपात में राज्यों की विधानसभाओं तथा पंचायतों में स्थान सुरक्षित रखे गए हैं।
संवैधानिक प्रावधानों से इतर भी कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्हें सरकार जनजातियों के हितों को अपने स्तर पर भी देखती है। इसमें शामिल हैं- सरकारी सहायता अनुदान, अनाज बैंकों की सुविधा, आर्थिक उन्नति हेतु प्रयास, सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व हेतु उचित शिक्षा व्यवस्था मसलन- छात्रावासों का निर्माण और छात्रवृत्ति की उपलब्धता तथा सांस्कृतिक सुरक्षा मुहैया कराना इत्यादि। इसी के साथ केंद्र तथा राज्यों में जनजातियों के कल्याण हेतु अलग-अलग विभागों की स्थापना की गई है। जनजातीय सलाहकार परिषद इसका एक अच्छा उदाहरण है।
इन्हीं पहलों का परिणाम है कि जनजातियों की साक्षरता दर जो 1961 में लगभग 10.3% थी वह 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 66.1% तक बढ़ गई। सरकारी नौकरी प्राप्त करने की सुविधा देने की दृष्टि से अनुसूचित जातियों के सदस्यों की आयु सीमा तथा उनके योग्यता मानदंड में भी विशेष छूट की व्यवस्था की गई है।
हालिया सरकार ने भी जनजातियों के उत्थान की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। मसलन अनुसूचित जनजाति (एसटी) के छात्रों के लिये एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय योजना शुरू हुई है। इसका उद्देश्य दूरदराज़ के क्षेत्रों में रहने वाले विद्यार्थियों को मध्यम और उच्च स्तरीय शिक्षा प्रदान करना है। वहीं अनुसूचित जनजाति कन्या शिक्षा योजना निम्न साक्षरता वाले जिलों में अनुसूचित जनजाति की लड़कियों के लिये लाभकारी सिद्ध होगी।
इन सराहनीय कदमों के बावजूद देश भर में जनजातीय विकास को और मज़बूत करने की दरकार है। यह सही है कि जनजातियों का एक खास तबका समाज की मुख्यधारा में आने से कतराता है, लेकिन ऐसे में इनका समुचित विकास और संरक्षण भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

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