फ्रांसीसी क्रांति के विभिन्न कारण

फ्रांसीसी क्रांति के विभिन्न कारण



फ्रांसीसी क्रान्ति -  फ्रांस के इतिहास की राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल एवं आमूल परिवर्तन की अवधि थी जो 1789 से 1799 तक चली। बाद में, नेपोलियन बोनापार्ट ने फ्रांसीसी साम्राज्य के विस्तार द्वारा कुछ अंश तक इस क्रान्ति को आगे बढ़ाया। क्रान्ति के फलस्वरूप राजा को गद्दी से हटा दिया गया, एक गणतंत्र की स्थापना हुई, खूनी संघर्षों का दौर चला, और अन्ततः नेपोलियन की तानाशाही स्थापित हुई जिससे इस क्रान्ति के अनेकों मूल्यों का पश्चिमी यूरोप में तथा उसके बाहर प्रसार हुआ। इस क्रान्ति ने आधुनिक इतिहास की दिशा बदल दी। इससे विश्व भर में निरपेक्ष राजतन्त्र का ह्रास होना शुरू हुआ, नये गणतन्त्र एवं उदार प्रजातन्त्र बने।

आधुनिक युग में जिन महापरिवर्तनों ने पाश्चात्य सभ्यता को हिला दिया उसमें फ्रांस की राज्यक्रांति सर्वाधिक नाटकीय और जटिल साबित हुई। इस क्रांति ने केवल फ्रांस को ही नहीं अपितु समस्त यूरोप के जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। फ्रांसीसी क्रांति को पूरे विश्व के इतिहास में मील का पत्थर कहा जाता है। इस क्रान्ति ने अन्य यूरोपीय देशों में भी स्वतन्त्रता की ललक कायम की और अन्य देश भी राजशाही से मुक्ति के लिए संघर्ष करने लगे। इसने यूरोपीय राष्ट्रों सहित एशियाई देशों में राजशाही और निरंकुशता के खिलाफ़ वातावरण तैयार किया। जिसके कारण ही क्रांति में परिवर्तन हुआ


फ्रांसीसी क्रांति के कारण

फ्रांस की राज्य क्रांति किसी एक कारण से नहीं हुई थी। न तो यह सिर्फ अत्याचार के विरुद्ध हुई और न असमानता के। इसके पीछे राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक आदि कारण थे।


राजनीतिक कारण - 
फ्रांस में स्वेच्छाचारी निरंकुश शासन की एक अजीब परंपरा कायम हो गयी थी। लुई चौदहवाँ कहा करता था, कि मैं ही राज्य हूँ। प्रशासन की समस्त शक्तियाँ एक ही व्यक्ति अर्थात् राजा में केन्द्रित थी। सिद्धांत तथा व्यवहार में उसके अधिकार असीमित थे और उस पर किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं था। राजा की इच्छा ही कानून थी। सोलहवाँ लुई तो कहा करता था, यह चीज कानूनी है, कारण मैं ऐसा चाहता हूँ। यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है, कि निरंकुश शासन के लिये एक योग्य तथा शक्तिशाली शासक की आवश्यकता होती है, परंतु संयोग की बात है, कि चौदहवें लुई के दोनों उत्तराधिकारी – लुई पन्द्रहवाँ और लुई सोलहवाँ निरंकुश शासन के लिये एक अनुपयोगी सिद्ध हुए। लुई सोलहवाँ जिसके समय में क्रांति का विस्फोट हुआ, न तो प्रभावशाली था और न एक योग्य प्रशासक। उसमें इच्छा शक्ति और निर्णय बुद्धि का सर्वथा अभाव था। वह अपने आमोद-प्रमोद में डूबा रहता था। वह फ्रांस की राजधानी पेरिस से बारह मील दूर वर्साय के शानदार राजमहल में निवास करता था। उसका राजमहल यूरोप के अन्य शासकों के महलों की तुलना में बहुत अधिक शानदार था। वहाँ सैकङों मेहमान रहते थे। और हजारों की संख्या में नौकर थे। महल में आमोद-प्रमोद और रंगरेलियों की भरमार थी। राजमहल पर प्रतिवर्ष करोङों रुपया व्यय होता था। और इस निरर्थक खर्च के कारण लोग राज दरबार को राष्ट्र के सत्यानाश की जङ कहा करते थे। फ्रांस के सम्राट को अपनी जनता की कठनाइयों का पूरा पता भी न था और न उसके पास इस तरफ ध्यान देने के लिये समय ही था। उसकी इस उदासीनता से जनता उससे रुष्ट थी। लुई पर अपनी नवयौवन पत्नी मारी आन्त्वानेत (ऑतोआंत)का बहुत प्रभाव था। रानी का आचरण अधिक अच्छा नहीं था। उसने अपने कृपापात्रों को उच्च पदों पर नियुक्त करवाने तथा राज दरबार के खर्च को बढाने में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

फ्रांस की आंतरिक शासन व्यवस्था भी सुसंगठित नहीं थी। वह कई प्रकार की इकाइयों में विभाजित था, जिसमें समानता का अभाव था। कहने को सभी इकाइयाँ केन्द्रीय शासन के अंतर्गत थी। प्रत्येक इकाई में एक सर्वोच्च अधिकारी नियुक्त किया जाता था, जो केन्द्र के आदेशानुसार इकाई की शासन-व्यवस्था चलाता था, परंतु केन्द्रीय शासन की निर्बलता का लाभ उठाकर इकाइयों के अधिकारी लगभग स्वतंत्र शासकों की भाँति शासन करने लगे थे। केन्द्रीय आदेशों का ठीक से पालन नहीं किया जाता और उनके स्वयं के आदेश भी नित्य प्रति बदलते रहते थे। जनता इस प्रकार की शासन व्यवस्था से परेशान थी। मजे की बात यह थी, कि एक इकाई के नियम दूसरी इकाई के नियमों से काफी भिन्न होते थे। संपूर्ण फ्रांस में एक सामान्य नियम संग्रह का अभाव था।

फ्रांस के लोगों को किसी प्रकार के राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। उन्हें भाषण, लेखन, विचार-अभिव्यक्ति अथवा प्रकाशन की स्वतंत्रता न थी। धार्मिक स्वतंत्रता भी न थी। वैयक्तिगत स्वतंत्रता का भी अभाव था। शासन चाहे जिस व्यक्ति को बंदी बना सकता था और बिना मुकदमा चलाए सजा दी जा सकती थी, लोगों को कहीं से न्याय मिलने की आशा न थी। कानून और नियम केवल विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की सहायता के लिये थे। प्रोफेसर केटेलबी ने फ्रांस की तत्कालीन स्थिति के संदर्भ में लिखा है, – विशेषाधिकार, रियायत, विमुक्ति – कानून नहीं, फ्रांसीसी समाज के आधार थे। उनके शासकों की नीति किसी सिद्धांत पर नहीं, इच्छा पर निर्भर थी। इसीलिये, कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये, कि क्रांतिकारियों की सबसे पहली माँग संविधान के लिये थी, जिससे उनका अभिप्राय था, कि देश में कुछ व्यवस्था, कुछ संगठन हो। ऐसी स्थिति में क्रांति का घटित होना कोई अनहोनी बात नहीं थी।


सामाजिक कारण - 
फ्रांसीसी समाज में विद्यमान सामाजिक असमानता क्रांति का मुख्य कारण था। समाज मुख्यतः तीन वर्गों अथवा श्रेणियों में विभाजित था। ये वर्ग थे – पादरी अथवा धर्माधिकारी, कुलीन सामंत और साधारण लोग। प्रथम दो श्रेणियों के लोगों को विशेष सुविधाएँ अथवा विशेषाधिकार प्राप्त थे और तीसरे वर्ग (सामान्य लोग)की तुलना में उनकी स्थिति बहुत ऊँची थी। क्रांति के समय फ्रांस की कुल जनसंख्या लगभग ढाई करोङ थी, जिसमें विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोगों की संख्या लगभग 2,70,000 थी अर्थात् कुल आबादी का एक प्रतिशत भाग।

पादरी वर्ग - 
क्रांति के पूर्व फ्रांस में चर्च का विशेष स्थान था और इसके पदाधिकारी (पादरी लोग)समाज के सर्वोच्च शिखर पर थे। ये लोग प्रथम श्रेणी के सदस्य थे। चर्च के अधिकारी काफी सम्पन्न तथा शक्तिशाली थे। फ्रांस की संपूर्ण जागीरी भूमि की बीस प्रतिशत भूमि चर्च के अधिकार में थी, जिससे चर्च को बहुत अधिक आय होती थी और यह आय सरकारी करों से मुक्त थी। इस नियमित आय के अलावा कैथोलिक चर्च किसानों से सब प्रकार की फसलों पर धर्मांश (एक प्रकार का धार्मिक कर)भी वसूल करता था। चर्च की आय काफी थी और वह जनहित के बहुत से काम भी करता था, परंतु चर्च के भीतर घोर पक्षपात और अपव्ययता का बोलबाला था। चर्च का नैतिक पतन भी हो चुका था और उसकी जङें खोखली हो चुकी थी। उसकी आय का अधिकांश भाग बङे-बङे अधिकारियों – आर्क बिशप, बिशप, एबाट आदि की जेबों में चला जाता था और उनमें से अधिकांश आमोद-प्रमोद एवं भोग-विलास का जीवन बिताते थे। अतः लोगों में उनके प्रति असंतोष बढता जा रहा था। चर्च धार्मक कार्यों का संपादन साधारण पादरी लोग करते थे। इन लोगों की नियुक्ति तीसरे वर्ग अर्थात् साधारण लोगों में से की जाती थी। इन लोगों को अपने भरण – पोषण के लिये बहुत ही कम वेतन मिलता था। चर्च के बङे अधिकारी इन्हें घृणा की दृष्टि से देखते थे, परंतु साधारण पादरियों में से अधिकांश काफी पढें-लिखे थे और उनका सुझाव सुधारवादी आंदोलन की तरफ था। यही कारण है, कि क्रांति के समय उन लोगों ने सर्वसाधारण का साथ दिया।
 
कुलीन वर्ग - 
कुलीन लोग द्वितीय श्रेणी के सदस्य थे। इस वर्ग में सामंत, राजदरबारी तथा बङे-बङे पदाधिकारी सम्मिलित थे। इनमें से अधिकांश मध्ययुगीन सामंतों के वंशज थे। फ्रांस की संपूर्ण भूमि का एक – चौथाई भाग कुलीनों की संपत्ति थी, जिसके सहारे वे शान-शौकत तथा भोग-विलासिता का जीवन बिताते थे। अपनी सम्पन्नता तथा विशेषाधिकारों की वजह से समाज में इनकी स्थिति बहुत ऊँची थी, परंतु इस वर्ग में भी आपसी एकता का अभाव था।

हेजन के शब्दों में सामंतों के दो वर्ग थे – एक सैनिकों का और दूसरा न्यायाधीशों का। पहला वर्ग पुराने योद्धा सामंतों का वंशज था और वे पीढी दर पीढी फ्रांस के राजाओं की सैनिक सेवा में रहते आए थे। दूसरे वर्ग में वे लोग थे, जो अपने न्यायिक पदों के कारण कुलीन वर्ग के सदस्य बन गए थे। सैनिक सामंत भी श्रेणियों में विभाजित थे – एक दरबारी सामंत और दूसरे प्रांतीय सामंत। यद्यपि दरबारी सैनिक सामंतों की संख्या काफी कम थी, परंतु शान-शौकत और ऐश्वर्य प्रदर्शन में वे सबसे आगे रहते थे। ये लोग मनमाने तरीके से जागीरों का प्रबंध चलाते थे और किसानों का हरसंभव उपाय से शोषण करते थे। ऐसे सामंत समाज में ईर्ष्या व तिरस्कार के पात्र बने हुए थे, क्योंकि प्रशासन के अधिकांश उच्च पदों पर भी उन्हीं का एकाधिकार था। प्रांतीय सामंत अपना अधिकांश समय अपनी जागीरों में ही बिताया करते थे। उनमें से अधिकांश समय अपनी जागीरों में ही समय बिताय करते थे। उनमें से अधिकांश की आर्थिक स्थिति बिगङ चुकी थी और कुछ तो ऐसे थे, जिनकी आय सम्पन्न किसानों से अधिक न थी। फिर भी, सभी सामंतों की रीति – नीति एक जैसी ही थी। किसानों का शोषण करना, उनसे बलात् बेगार लेना, इसकी वजह से किसानों में काफी असंतोष व्याप्त था।


तीसरा वर्ग - 
उपर्युक्त दोनों वर्गों के अलावा अन्य सभी लोगों को तीसरे वर्ग का सदस्य माना जाता था। इस वर्ग के लोग सभी प्रकार के अधिकारों से वंचित थे। इस वर्ग में भी भारी असमानता थी और सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से इस वर्ग के विभिन्न अंगों में व्यापक अंतर था। धनी व्यापार, साहूकार, उद्योगपति, साहित्यकार, चिकित्सक, इंजीनियर, शिक्षक, कलाकार, किसान और मजदूर, सभी तीसरे वर्ग के सदस्य थे। इस दृष्टि से इसमें एकरूपता का अभाव था। इस वर्ग को तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है – बुर्जुआ अथवा मध्यम वर्ग, दस्तकार और मजदूर तथा किसान।

मध्यम वर्ग - 
फ्रेंच भाषा में इस वर्ग के लिये बुर्जुआ शब्द का प्रयोग किया गया है। इस वर्ग में वे सभी लोग सम्मिलित थे, जिन्हें शारीरिक श्रम नहीं करना पङता था। लेखक, कलाकार, वकील, चिकित्सक, साहित्यकार, व्यवसायी, व्यापारी, साहूकार, कारखानों के मालिक, निम्न पदस्थ सरकारी कर्मचारी आदि मध्यम वर्ग में थे। इस वर्ग की आर्थिक दशा संतोषजनक थी और शासन के अधिकांश निम्न पदों पर इन्हीं लोगों का अधिकार था। प्रथम दोनों वर्गों (पादरी एवं कुलीन) को इस वर्ग की सेवाओं की निरंतर आवश्यकता पङती थी। इस संपर्क की वजह से इस वर्ग को थोङी सी सुविधाएँ भी प्राप्त थी। मध्यम वर्ग मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में संशोधन का समर्थक था। बुद्धिमान, कर्मठ, शिक्षित और धनी होने के बाद भी देश की राजनीतिक संस्थाओं पर उसका कोई प्रभाव नहीं था, जबकि यह वर्ग देश की राजनीतिक संस्थाओं पर उसका कोई प्रभाव नहीं था, जबकि यह वर्ग देश की राजनीति पर अपना नियंत्रण कायम करने को इच्छुक था। ऐसा पुरानी व्यवस्था को बदलने से ही संभव था। अतः इन दोनों वर्गों में संघर्ष एक तरह से अनिवार्य था। आर.आर.पालमर ने लिखा है, कि मध्यम वर्ग के असंतोष का सर्वाधिक मुख्य कारण यह था, कि सुयोग्य एवं समृद्ध होते हुये भी उन्हें कुलीनों के समान सामाजिक सम्मान प्राप्त नहीं था और वे राजनीतिक अधिकारों से वंचित थे। यही कारण है, कि क्रांति के समय समानता का नारा बुलंद किया गया और इस नारे को बुलंद करने वाले मध्यम श्रेणी के लोग ही थे।

शिल्पकार -
बुर्जुआ वर्ग के नीचे शिल्पकार लोग थे। इन्हें दस्तकार भी कह सकते हैं। इनमें से अधिकांश नगरों में बसे हुए थे और ये लोग अपनी – अपनी श्रेणियों में संगठित थे, परंतु सरकार की तरफ से उन्हें किसी प्रकार का प्रोत्साहन अथवा संरक्षण प्राप्त नहीं था और कुलीन वर्ग तथा पादरी वर्ग उनका निरंतर शोषम करते रहते थे, जिसकी वजह से वे लोग भी मौजूदा सामाजिक व्यवस्था से काफी परेशान थे।

कृषक वर्ग - 
फ्रांस की अधिकांश आबादी कृषक वर्ग की थी। राजपरिवार, शासन, कुलीन वर्ग और पादरी वर्ग का अधिकांश व्यय इसी वर्ग को सहन करना पङता था, परंतु उन्हें दयनीय जीवन बिताना पङता था। उन्हें राज्य, चर्च और जागीरदार को अनेक प्रकार के कर देने पङते थे। करों के अलावा उन्हें अधिकारियों तथा सामंतों की अनेक प्रकार की निःशुल्क सेवाएँ करनी पङती थी, परंतु राजनीति और शासन में उनका कोई प्रभाव नहीं था। न तो उनके पास किसी प्रकार के अधिकार थे और न ही सुविधाएँ । भूमिकर सख्ती से वसूल किया जाता था। अकाल अथवा कम पैदावार के दिनों में भी उन्हें किसी प्रकार की माफी अथवा छूट नहीं दी जाती थी। उन्हें दीन-हीन जीवन बिताना पङता था। न तो उन्हें भरपेट भोजन ही नसीब होता था और न तन ढँकने के लिये पर्याप्त वस्त्र। आमोद-प्रमोद तथा भोग विलास तो उनके जीवन से कोसों दूर था। इस प्रकार, करों के रूप में चला जाता था।अतः सुविधा सम्पन्न वर्गों के प्रति उनके रोष की मात्रा दिन प्रतिदिन बढती जा रही थी। यही कारण है, कि जब फ्रांस में क्रांति हुई तो किसानों ने ह्रदय से उसका स्वागत किया और कुलीन वर्ग का सफाया करने में पूरा-पूरा सहयोग दिया।


आर्थिक कारण - 
बहुत से विद्वानों के मतानुसार फ्रांस की शोचनीय आर्थिक स्थिति क्रांति का मूल कारण थी। सरकार की आर्थिक स्थिति बिगङते-बिगङते दिवालियापन की तरफ बढ गयी। चौदहवें लुई के युद्धों तथा वर्साय के राजमहल के निर्माण ने सरकारी कोष को खाली ही नहीं कर दिया था अपितु कर्ज का भार भी लाद दिया। पन्द्रहवें लुई की अयोग्यता से कर्ज और भी अधिक बढ गया। सोलहवें लुई की शान-शौकत और आमोद-प्रमोद से सरकार दिवालिया हो गयी। जब कर्ज मिलना बंद हो गया तो स्थिति को सुधारने की चिन्ता हुई, परंतु कुलीन वर्ग के षङयंत्र के कारण कोई भी मंत्री कामयाब नहीं हो पाया। अंत में, नए कर लगाने का निश्चय किया गया। पेरिस की पार्लमां और जनता ने नए करों का जोरदार विरोध किया, उन्होंने माँग की कि पहले इन करों को इस्टेट्स जनरल से स्वीकृत कराया जाय। अतः इस्टेट्स जनरल का अधिवेशन बुलाना आवश्यक हो गया और वहीं से क्रांति का विस्फोट हुआ। इस दृष्टि से फ्रांस की तत्कालीन आर्थिक स्थिति क्रांति का एक प्रमुख कारण बन गई।

दार्शनिकों एवं विचारकों का योगदान -
मॉन्टेस्क्यू - मॉन्टेस्क्यू ( Montesquieu) फ्रांस का एक राजनैतिक विचारक, न्यायविद तथा उपन्यासकार था। मॉन्टेस्क्यू ने शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त दिया। फ्रांसीसी राजतंत्र की आलोचना करने वाला पहला प्रमुख व्यक्ति मॉन्टेस्क्यू था।

वह एक उच्च कोटि का वकील और बोदों की संसद का न्यायाधीश था। उसने 1748 ई. में अपनी सुप्रसिद्ध रचना कानून की आत्मा (The Spirit of Low)का प्रकाशन करवाया। इसमें उसने फ्रांस के राजाओं के दैवी अधिकार के सिद्धांत की कटु आलोचना की तथा फ्रांस की सङी गली खोखली संस्थाओं की बङी व्यंग्यात्मक आलोचना की। वह वैधानिक शासन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का जबरदस्त समर्थक था। उसका मानना था, कि निरंकुश शासन को समाप्त करने के लिये शासन के तीनों अंगों – कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के क्षेत्रों को पृथक-पृथक करना आवश्यक है। उसने शक्ति-पार्थक्य के सिद्धांत का प्रतिपादन किया और बतलाया कि ऐसा करने से तीनों शक्तियाँ एक दूसरे के अधिकारों को सीमित रखेंगी तथा जनता के अधिकारों की रक्षा संभव हो सकेगी…अधिक जानकारी

वाल्टेयर - 
वाल्टेयर फ्रांसीसी लेखक, कवि, दार्शनिक, नाटककार, इतिहासकार, पत्रकार, आलोचक एवं व्यंग्यकार था। वह अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थक था। उनका जन्म 21 नवंबर 1694 में हुआ था। उसकी मृत्यु 1778 में हुई। वाल्टेयर के विचारों ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया।

वाल्तेयर की गणना बौद्धिक जागृति के नेताओं में सबसे आगे होती है। अपनी आलोचना के कारण उसे बार-बार कारावास की सजा भी भुगतनी पङी। वाल्तेयर को हर प्रकार के अत्याचार से घृणा थी। वह मानव स्वतंत्रता का समर्थक था। उसकी लेखनी तलवार से भी अधिक सशक्त थी। उसकी शैली जितनी स्पष्ट थी, उतनी ही नुकीली और तीखी भी थी। उसने अपनी लेखनी के द्वारा उस युग के अन्याय व अत्याचार, धार्मिक पक्षपात एवं निराधार विश्वासों के विरुद्ध दीर्घकाल तक संघर्ष किया था…अधिक जानकारी

रूसो - 
जीन-जेकस रूसो (1712ई. – 1778ई.) की गणना पश्चिम के युगप्रवर्तक विचारकों में की गई है। अपनी प्रारंभिक रचनाओं में रूसो ने यह विचार प्रस्तुत किया कि आदि मानव एक भला, न्यायशील तथा सुखी प्राणी था, किन्तु सभ्यता ने उसे भ्रष्ट और पतित कर दिया था। इसलिये सभ्यता की जङों को उखाङ फेंकना चाहिये और एक आदर्श समाज का निर्माण करना चाहिये।

रूसो ने अपने उपर्युक्त क्रांतिकारी विचारों का अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक सामाजिक संविदा (Social Contract)में विस्तार से उल्लेख किया है। पुस्तक का पहला वाक्य मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ था, किन्तु वह सर्वत्र बंधनों से जकङा हुआ है…अधिक जानकारी


अन्य विचारों का योगदान - 
दिदरो, आर्लोबेयर एवं केने आदि विचारकों ने भी लोगों को जागृत करने में अपना-अपना योगदान दिया। दिदरो ने एक विशाल ज्ञानकोष का सम्पादन किया, जिसमें तत्कालीन युग के प्रमुख विद्वानों की रचनाएँ संकलित थी। इसमें धर्म और राजनीति से संबंधित आलोचनात्मक लेख थे, जिनसे विद्रोह की गंध आ रही थी। राजतंत्र की निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता, चर्च की अनैतिकता, सामंती व्यवस्था की अनुपयोगिता, सामाजिक असमानता, शासन की भ्रष्टता आदि पर कठोर प्रहार किये गये थे। इससे लोगों को एक नया दृष्टिकोण मिला।

कुछ ऐसे अर्थशास्त्री भी हुए, जिन्होंने व्यापार तथा कला-कौशल के मार्ग में शासन की ओर से पैदा की गई रुकावटों का विरोध किया। उनका नारा था, – सबको इच्छानुसार कार्य करने दो। और शासन को कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिये। वे वाणिज्यवादी नीति के विरोधी थे। ऐसे लोगों में क्वेसने प्रमुख था। अन्य लेखों में इतिहासकार रेनाल तथा माबली के नाम उल्लेखनीय हैं। फ्रांस के उपर्युक्त विचारकों एवं लेखकों ने लोगों के दिमाग में बौद्धिक हलचल पैदा करके फ्रांसीसी क्रांति के मनौवैज्ञानिक आधार को पुष्ट कर दिया। स्वतंत्रता, समानता, सहिष्णुता, उन्मुक्त व्यापार और जनसत्ता संबंधी विचारों ने पुरातन व्यवस्था को उखाङने में शक्तिशाली अस्त्रों की भूमिका अदा की। उन्होंने क्रांति को जन्म नहीं दिया, परंतु क्रांति के कारणों को बङी चतुराई के साथ लोगों के सामने रखकर उन्हें क्रांति की ओर बढने के लिये विवश कर दिया।

अन्य कारण - 
क्रांति के कुछ अन्य कारण भी थे। अमेरिका के स्वतंत्रता संघर्ष में फ्रांस ने इंग्लैण्ड के विरुद्ध उपनिवेशों को सहायता दी थी। इस युद्ध में परिणामस्वरूप फ्रांस के राजकोष पर भारी बोझ पङा और उसकी आर्थिक स्थिति बिगङ गयी। इसीलिये सरकार को इस्टेट्स जनरल का अधिवेशन बुलाना पङा। दूसरी तरफ, इस संघर्ष में फ्रांस के हजारों स्वयंसेवकों और सैनिकों ने भी भाग लिया। वापस स्वदेश आने के बाद उन लोगों ने फ्रांस के लोगों को भी क्रांति के लिये उत्साहित किया। अत्याचारी शासन के विरुद्ध कैसे लङा जाता है, इसका अनुभव इन लोगों ने प्राप्त कर लिया था। आयरलैण्ड के लोगों ने भी निरंकुश शासन के विरुद्ध आंदोलन करके 1779-82 ई. की अवधि में काफी सुविधाएँ प्राप्त कर ली थी। इस उदाहरण का फ्रांसीसियों पर काफी प्रभाव पङा। इंग्लैण्ड में संवैधानिक शासनतंत्र जिस सफलता के साथ काम कर रहा था, उसका भी फ्रांस की जनता पर गहरा प्रभाव पङा। फ्रांस की सेना भी मौजूदा शासन से संतुष्ट न थी। सैनिकों तथा उनके अधिकारियों पर उस समय के विचारों का जोरदार प्रभाव पङ चुका था, अतः उन्होंने भी सर्वसाधारण का साथ दिया। इससे स्पष्ट है, कि फ्रांस की राज्य क्रांति किसी एक कारण का परिणाम न थी। इसके पीछे सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, बौद्धिक आदि अनेक कारण थे। राज्य की विषम आर्थिक समस्या को क्रांति का तात्कालिक कारण कहा जा सकता है।

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